।। श्री अजितनाथ चालीसा।।
श्री आदिनाथ को शिशन वाकर, माता सरस्वती को ध्याय।।
शुरू करूँ श्री अजितनाथ का, चालीसा स्व – सुखदाय।।
जय श्री अजितनाथ जिनराज, पावन चिह्न धरे गजराज।।
नगर अयोध्या कर ते राज, जित सात नामक महाराज।।
विजय सेन उनकी महारानी, देखे सोलह स्वप्न ललामी।।
दिव्य विमान विजय से चय कर, जननी उदर बसे प्रभु आकर।।
शुक्ल दशमी माघ मास की, जन्म जयन्ती अजितनाथ की।।
इन्द्र प्रभु को शीश धार कर, गए सुमेरू हर्षित होकर।।
नीर क्षीर सागर से लाकर, नवन करें भक्ति में भरकर।।
वस्त्रा भूषण दिव्य पहनाए, वापस लोट अयोध्या आए।।
अजितनाथ की शोभा न्यारी, वर्ण स्वर्ण सम कान्ति धारी।।
बीता बचपन जब हितकारी, हुआ ब्याह तब मंगलकारी।।
कर्म बन्ध नही हो भोगो में, अन्त दृष्टि थी योगो में।।
चंचल चपला देखी नभ में, हुआ वैराग्य निरन्तर मन में।।
राज पाट निज सुत को देकर, हुए दिगम्बर दीक्षा लेकर।।
छः दिन बाद हुआ आहार, करे श्रेष्ठि ब्रह्मा सत्कार।।
किये पंच अचरज देवो ने, पुण्यो पार्जन किया सभी ने।।
बारह वर्ष तपस्या कीनी, दिव्य ज्ञान की सिद्धि नवीनी।।
धन पति ने इन्द्रा आज्ञा पाकर, रच दिया समो शरण हर्षा कर।।
सभा विशाल लगी जिनवर की, दिव्य ध्वनि खिरती प्रभुवर की।।
वाद विवाद मिटाने हेतु, अनेकांत का बाँधा सेतु।।
है सापेक्ष यहा सब तत्व, अन्योन्याश्रित है उन सत्व।।
सब जीवो में है जो आतम, वे भी हो सकते शुद्धात्म।।
ध्यान अग्नि का ताप मिले जब, केवल ज्ञान की ज्योति जले तब।।
मोक्ष मार्ग तो बहुत सरल है, लेकिन राही हुए विरल है।।
हीरा तो सब ले नही पावे, सब्जी भाजी भीङ धरावे।।
दिव्य ध्वनि सुनकर जिनवर की, खिली कली जन जन के मन की।।
प्राप्ति कर सम्यग्दर्शन की, बगिया महकी भव्यजनो की।।
हिंसक पशु भी समता धारे, जन्म जन्म का बैर निवारे।।
पूर्ण प्रभावना हुई धर्म की, भावना शुद्ध हुई भविजन की।।
दुर दुर तक हुआ विहार, सदाचार का हुआ प्रचार।।
एक माह की उम्र रही जब, गए शिखर सम्मेद प्रभु तब।।
अखण्ङ मौन मुद्रा की धारण, कर्म अघाती हेतु निवारण।।
शुक्ल ध्यान का हुआ प्रताप, लोक शिखर पर पहुँचे आप।।
सिद्धवर कुट की भारी महिमा, गाते सब प्रभु के गुण – गरिमा।।